त्रिपुर भैरवी जयंती पर कौन सा पाठ करें?

त्रिपुर भैरवी जयंती पर करें महाकाली कवच का पाठ, जानें इससे होने वाले चमत्कारी लाभ के बारे में 



हिंदू पंचांग के अनुसार, इस साल त्रिपुर भैरवी जयंती 15 दिसंबर को मनाई जाएगी। यह दिन मां काली को समर्पित है, जो शक्ति और सामर्थ्य की प्रतीक हैं। मां काली की पूजा शास्त्रों में बहुत ही फलदायी मानी गई है। मान्यताओं के अनुसार जो भक्त मां की पूजा विधि अनुसार करते हैं उनकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। इस दिन मां काली के पूजन का दोगुना फल प्राप्त होता है और जो भक्त महाकाली कवच का पाठ करता है उस पर मां काली की कृपा सदैव बनी रहती है। साथ ही इससे साधक के गुप्त शत्रुओं का भी नाश होता है। इसलिए त्रिपुर भैरवी जयंती के अवसर पर मां काली की पूजा करना और महाकाली कवच का पाठ करना बहुत ही फलदायी माना गया है। आइये इस लेख में महाकाली कवच पढ़ते हैं और इसे पढ़ने से होने वाले लाभ के बारे में जानते हैं। 

महाकाली कवच का पाठ करने से लाभ 


  • मां काली की कृपा प्राप्ति: महाकाली कवच का पाठ करने से मां काली की कृपा प्राप्त होती है, जिससे साधक के जीवन में सुख, समृद्धि और शांति आती है।
  • गुप्त शत्रुओं का नाश: महाकाली कवच का पाठ करने से साधक के गुप्त शत्रुओं का नाश होता है, जिससे साधक के जीवन में सुरक्षा और संरक्षण आता है।
  • शक्ति, सामर्थ्य और आत्मविश्वास: महाकाली कवच का पाठ करने से साधक को शक्ति, सामर्थ्य और आत्मविश्वास प्राप्त होता है, जिससे साधक अपने जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त करने में सक्षम होता है।
  • मनोकामना पूर्ति: महाकाली कवच का पाठ करने से साधक की सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं, जिससे साधक के जीवन में सुख और समृद्धि आती है।
  • भय और चिंता का नाश: महाकाली कवच का पाठ करने से साधक के मन में से भय और चिंता का नाश होता है, जिससे साधक के जीवन में शांति और सुरक्षा आती है।

॥महाकाली कवच॥


काली पूजा श्रुता नाथ भावाश्च विविधाः प्रभो ।
इदानीं श्रोतु मिच्छामि कवचं पूर्व सूचितम् ॥
त्वमेव शरणं नाथ त्राहि माम् दुःख संकटात् ।
सर्व दुःख प्रशमनं सर्व पाप प्रणाशनम् ॥
सर्व सिद्धि प्रदं पुण्यं कवचं परमाद्भुतम् ।
अतो वै श्रोतुमिच्छामि वद मे करुणानिधे ॥
रहस्यं श्रृणु वक्ष्यामि भैरवि प्राण वल्लभे ।
श्री जगन्मङ्गलं नाम कवचं मंत्र विग्रहम् ॥
पाठयित्वा धारयित्वा त्रौलोक्यं मोहयेत्क्षणात् ।
नारायणोऽपि यद्धत्वा नारी भूत्वा महेश्वरम् ॥
योगिनं क्षोभमनयत् यद्धृत्वा च रघूद्वहः ।
वरदीप्तां जघानैव रावणादि निशाचरान् ॥
यस्य प्रसादादीशोऽपि त्रैलोक्य विजयी प्रभुः ।
धनाधिपः कुबेरोऽपि सुरेशोऽभूच्छचीपतिः ।
एवं च सकला देवाः सर्वसिद्धिश्वराः प्रिये ॥
ॐ श्री जगन्मङ्गलस्याय कवचस्य ऋषिः शिवः ।
छ्न्दोऽनुष्टुप् देवता च कालिका दक्षिणेरिता ॥
जगतां मोहने दुष्ट विजये भुक्तिमुक्तिषु ।
यो विदाकर्षणे चैव विनियोगः प्रकीर्तितः ॥

|| अथ कवचम् ||


शिरो मे कालिकां पातु क्रींकारैकाक्षरीपर ।
क्रीं क्रीं क्रीं मे ललाटं च कालिका खड्‌गधारिणी ॥
हूं हूं पातु नेत्रयुग्मं ह्नीं ह्नीं पातु श्रुति द्वयम् ।
दक्षिणे कालिके पातु घ्राणयुग्मं महेश्वरि ॥
क्रीं क्रीं क्रीं रसनां पातु हूं हूं पातु कपोलकम् ।
वदनं सकलं पातु ह्णीं ह्नीं स्वाहा स्वरूपिणी ॥
द्वाविंशत्यक्षरी स्कन्धौ महाविद्यासुखप्रदा ।
खड्‌गमुण्डधरा काली सर्वाङ्गभितोऽवतु ॥
क्रीं हूं ह्नीं त्र्यक्षरी पातु चामुण्डा ह्रदयं मम ।
ऐं हूं ऊं ऐं स्तन द्वन्द्वं ह्नीं फट् स्वाहा ककुत्स्थलम् ॥
अष्टाक्षरी महाविद्या भुजौ पातु सकर्तुका ।
क्रीं क्रीं हूं हूं ह्नीं ह्नीं पातु करौ षडक्षरी मम ॥
क्रीं नाभिं मध्यदेशं च दक्षिणे कालिकेऽवतु ।
क्रीं स्वाहा पातु पृष्ठं च कालिका सा दशाक्षरी ॥
क्रीं मे गुह्नं सदा पातु कालिकायै नमस्ततः ।
सप्ताक्षरी महाविद्या सर्वतंत्रेषु गोपिता ॥
ह्नीं ह्नीं दक्षिणे कालिके हूं हूं पातु कटिद्वयम् ।
काली दशाक्षरी विद्या स्वाहान्ता चोरुयुग्मकम् ॥
ॐ ह्नीं क्रींमे स्वाहा पातु जानुनी कालिका सदा ।
काली ह्रन्नामविधेयं चतुवर्ग फलप्रदा ॥
क्रीं ह्नीं ह्नीं पातु सा गुल्फं दक्षिणे कालिकेऽवतु ।
क्रीं हूं ह्नीं स्वाहा पदं पातु चतुर्दशाक्षरी मम ॥
खड्‌गमुण्डधरा काली वरदाभयधारिणी ।
विद्याभिः सकलाभिः सा सर्वाङ्गमभितोऽवतु ॥
काली कपालिनी कुल्ला कुरुकुल्ला विरोधिनी ।
विपचित्ता तथोग्रोग्रप्रभा दीप्ता घनत्विषः ॥
नीला घना वलाका च मात्रा मुद्रा मिता च माम् ।
एताः सर्वाः खड्‌गधरा मुण्डमाला विभूषणाः ॥
रक्षन्तु मां दिग्निदिक्षु ब्राह्मी नारायणी तथा ।
माहेश्वरी च चामुण्डा कौमारी चापराजिता ॥
वाराही नारसिंही च सर्वाश्रयऽति भूषणाः ।
रक्षन्तु स्वायुधेर्दिक्षुः दशकं मां यथा तथा ॥
इति ते कथित दिव्य कवचं परमाद्भुतम् ।
श्री जगन्मङ्गलं नाम महामंत्रौघ विग्रहम् ॥
त्रैलोक्याकर्षणं ब्रह्मकवचं मन्मुखोदितम् ।
गुरु पूजां विधायाथ विधिवत्प्रपठेत्ततः ॥
कवचं त्रिःसकृद्वापि यावज्ज्ञानं च वा पुनः ।
एतच्छतार्धमावृत्य त्रैलोक्य विजयी भवेत् ॥
त्रैलोक्यं क्षोभयत्येव कवचस्य प्रसादतः ।
महाकविर्भवेन्मासात् सर्वसिद्धीश्वरो भवेत् ॥
पुष्पाञ्जलीन् कालिका यै मुलेनैव पठेत्सकृत् ।
शतवर्ष सहस्त्राणाम पूजायाः फलमाप्नुयात् ॥
भूर्जे विलिखितं चैतत् स्वर्णस्थं धारयेद्यदि ।
शिखायां दक्षिणे बाहौ कण्ठे वा धारणाद् बुधः ॥
त्रैलोक्यं मोहयेत्क्रोधात् त्रैलोक्यं चूर्णयेत्क्षणात् ।
पुत्रवान् धनवान् श्रीमान् नानाविद्या निधिर्भवेत् ॥
ब्रह्मास्त्रादीनि शस्त्राणि तद् गात्र स्पर्शवात्ततः ।
नाशमायान्ति सर्वत्र कवचस्यास्य कीर्तनात् ॥
मृतवत्सा च या नारी वन्ध्या वा मृतपुत्रिणी ।
कण्ठे वा वामबाहौ वा कवचस्यास्य धारणात् ॥
वह्वपत्या जीववत्सा भवत्येव न संशयः ।
न देयं परशिष्येभ्यो ह्यभक्तेभ्यो विशेषतः ॥
शिष्येभ्यो भक्तियुक्तेभ्यो ह्यन्यथा मृत्युमाप्नुयात् ।
स्पर्शामुद्‌धूय कमला वाग्देवी मन्दिरे मुखे ।
पौत्रान्तं स्थैर्यमास्थाय निवसत्येव निश्चितम् ॥
इदं कवचं न ज्ञात्वा यो जपेद्दक्षकालिकाम् ।
शतलक्षं प्रजप्त्वापि तस्य विद्या न सिद्धयति ।
शस्त्रघातमाप्नोति सोचिरान्मृत्युमाप्नुयात् ॥

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