सनातन धर्म में भगवान परशुराम को भगवान विष्णु के छठे अवतार के रूप में पूजा जाता है, जिनका जन्म त्रेता युग में हुआ था और उनका उद्देश्य धरती पर धर्म की स्थापना और अधर्मियों का विनाश करना था। साथ ही, ऐसा कहा जाता है कि वे एक ऐसे देवता हैं, जिनका जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ, लेकिन उनका जीवन क्षत्रिय गुणों से भरा हुआ था।
धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार, भगवान परशुराम का जन्म भृगु वंश में हुआ था और उनके पिता ऋषि जमदग्नि थे तथा माता रेणुका थीं। उनका परिवार अत्यन्त धार्मिक था, जिसमें ब्रह्मज्ञान और तपस्या की विशेष परंपरा थी। साथ ही, परशुराम का मुख्य नाम ‘राम’ था, लेकिन उन्हें ‘परशु’ नाम का दिव्य शस्त्र भगवान शिव से प्राप्त हुआ था, जिससे वे परशुराम के नाम से प्रसिद्ध हुए। ऐसा कहा जाता है कि भगवान परशुराम का जन्म बाकी विष्णु अवतारों से अलग है क्योंकि वे चिरंजीवी हैं, यानी आज भी जीवित हैं और ऐसी मान्यता है कि वे कलियुग के अंत तक धरती पर रहेंगे।
त्रेता युग में क्षत्रिय वर्ण के लोग अत्यंत अत्याचारी और अधर्मी हो गये थे तथा ऋषियों, मुनियों और ब्राह्मणों पर अत्याचार कर रहे थे। इससे समाज में अधर्म फैल रहा था। ऐसे समय में एक ऐसे योद्धा की जरूरत थी जो ब्राह्मण के जैसा तेजस्वी हो और क्षत्रिय के जैसा योद्धा हो तथा जो धर्म की पुन: स्थापना कर सके। इसी कारण भगवान विष्णु ने परशुराम के रूप में छठा अवतार लिया था।
भगवान परशुराम अपने क्रोध और न्यायप्रिय स्वभाव के लिए जाने जाते हैं। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, जब राजा सहस्त्रार्जुन ने उनके पिता ऋषि जमदग्नि की हत्या कर दी थी, तब इससे क्रोधित होकर उसके वंश का 21 बार संहार किया था। यह केवल प्रतिशोध या क्रोध नहीं था, बल्कि अधर्म और अन्याय के खिलाफ एक चेतावनी भी थी।
भगवान परशुराम को शस्त्र और शास्त्र दोनों का ज्ञानी माना जाता है। उन्होंने भगवान राम को शिव धनुष की जानकारी दी थी और महाभारत में कर्ण और भीष्म जैसे योद्धाओं के गुरु बनकर उन्हें शस्त्र विद्या सिखाई थी। वे न सिर्फ क्रोध के प्रतीक हैं, बल्कि अनुशासन, त्याग, और धर्म के लिए समर्पण का उदाहरण भी हैं।
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